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125 साल पहले शिकागो में दिए इस ऐतिहासिक भाषण से पूरी दुनिया में छा गए थे स्वामी विवेकानंद

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11 सितंबर 1893, ये वो तारीख है जिस दिन स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका के शिकागो शहर में विश्व धर्म सम्मेलन में अपना ऐतिहासिक भाषण दिया था। आज उस ऐतिहासिक भाषण का 125वीं वर्षगांठ है। स्वामी विवेकानंद अपने इस भाषण से पूरी दुनियाभर में छा गए थे। इसी क्रम में उन्होंने भारत की गौरव गाथा से पूरी दुनिया को रूबरू कराया।

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सितंबर 1893 में भाषण देने के मौके पर स्वामी विवेकानंद और उनके साथ वी.ए. गांधी (बाएं से पहले) एच. धर्मपाला (बाएं से दूसरे, श्रीलंका) और बाकी अन्य जन vivekananda

125 साल पहले जब स्वामी विवेकानन्द ने अपने भाषण की शुरुआत ‘मेरे अमेरिकी भाइयों और बहनों’ से की तो पूरा सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। कुछ देर तक उस सभाघर में तालियों की गूंज ही बजती रही।

सम्मलेन में भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे स्वामी जी ने अपने भाषण की शुरुआत में ही वहां मौजूद अन्य लोगों को यह आभास करा दिया कि वह जिस भूमि से आए हैं, उसने दुनिया को धर्म का मार्ग दिखाया है और जो अपार ज्ञान का भण्डार रहा है।

स्वामी विवेकानन्द ने विशेष तौर पर यह बात जोर देकर कही कि भारत भूमि सहिष्णु रही है। दुनिया में भारत की भूमि एकलौती ऐसी धरती है, जिसने सभी को बिना ऊंच-नीच के आश्रय दिया है, चाहे वो पारसी हों, या इजराइली या फिर कोई और।

आखिर उस भाषण में ऐसा क्या था जिसने दुनिया को अचम्भित कर दिया! पढ़ें इतिहास के पन्नों में सुनहरे अक्षरों में दर्ज स्वामी विवेकानंद का वो ऐतिहासिक भाषण:

“अमेरिका के भाइयों और बहनों,

आपके इस स्नेहपूर्ण और जोरदार स्वागत से मेरा हृदय अपार हर्ष से भर गया है। मैं आपको दुनिया की सबसे प्राचीन संत परंपरा की तरफ से धन्यवाद देता हूं। मैं आपको सभी धर्मों की जननी की तरफ से धन्यवाद देता हूं और सभी जाति, संप्रदाय के लाखों, करोड़ों हिन्दुओं की तरफ से आपका आभार व्यक्त करता हूं। मेरा धन्यवाद कुछ उन वक्ताओं को भी जिन्होंने इस मंच से यह कहा कि दुनिया में सहनशीलता का विचार सुदूर पूरब के देशों से फैला है। मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं।

मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे देश से हूं, जिसने इस धरती के सभी देशों और धर्मों के परेशान और सताए गए लोगों को शरण दी है। मुझे यह बताते हुए गर्व हो रहा है कि हमने अपने हृदय में उन इस्त्राइलियों की पवित्र स्मृतियां संजोकर रखी हैं, जिनके धर्म स्थलों को रोमन हमलावरों ने तोड़-तोड़कर खंडहर बना दिया था। और तब उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली थी। मुझे इस बात का गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने महान पारसी धर्म के लोगों को शरण दी और अभी भी उन्हें पाल-पोस रहा है। भाइयो, मैं आपको एक श्लोक की कुछ पंक्तियां सुनाना चाहूंगा जिसे मैंने बचपन से स्मरण किया और दोहराया है और जो रोज करोड़ों लोगों द्वारा हर दिन दोहराया जाता है: जिस तरह अलग-अलग स्त्रोतों से निकली विभिन्न नदियां अंत में समुद में जाकर मिलती हैं, उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा के अनुरूप अलग-अलग मार्ग चुनता है। वे देखने में भले ही सीधे या टेढ़े-मेढ़े लगें, पर सभी भगवान तक ही जाते हैं।वर्तमान सम्मेलन जोकि आज तक की सबसे पवित्र सभाओं में से है, गीता में बताए गए इस सिद्धांत का प्रमाण है: जो भी मुझ तक आता है, चाहे वह कैसा भी हो, मैं उस तक पहुंचता हूं। लोग चाहे कोई भी रास्ता चुनें, आखिर में मुझ तक ही पहुंचते हैं।

सांप्रदायिकताएं, कट्टरताएं और इसके भयानक वंशज हठधमिर्ता लंबे समय से पृथ्वी को अपने शिकंजों में जकड़े हुए हैं। इन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है। कितनी बार ही यह धरती खून से लाल हुई है। कितनी ही सभ्यताओं का विनाश हुआ है और न जाने कितने देश नष्ट हुए हैं।

अगर ये भयानक राक्षस नहीं होते तो आज मानव समाज कहीं ज्यादा उन्नत होता, लेकिन अब उनका समय पूरा हो चुका है। मुझे पूरी उम्मीद है कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद सभी हठधर्मिताओं, हर तरह के क्लेश, चाहे वे तलवार से हों या कलम से और सभी मनुष्यों के बीच की दुर्भावनाओं का विनाश करेगा।”

आपको बता दें कि इतने बड़े मंच पर भारत का प्रतिनिधित्व करना स्वामी जी के लिए आसान नहीं था। जब वह शिकागो पहुंचे तो वहां उन्हें खून जमाने वाली ठण्ड का अंदाजा नहीं था। जो कपड़े उनके पास थे वे पर्याप्त नहीं थे। स्वामी जी ने खुद लिखा कि जब उनका जहाज शिकागो पहुंचा था तो वहां इतनी ठंड थी कि उनकी हड्डियां तक जम गई थी।

वह विदेशी धरती पर नितांत अकेले थे। विश्व धर्म सम्मेलन के शुरू होने के पांच हफ्ते पहले ही वह गलती से पहुंच गए थे। शिकागो काफी महंगा शहर था। उनके पास पर्याप्त पैसे भी नहीं थे और जितने पैसे थे वह तेजी से खत्म हो गए थे। पूरी तरह थके हुए स्वामी कड़ाके की सर्दी में मालगाड़ी के यार्ड में खड़े खाली डिब्बे में सोए। भूख लगने पर जब वह लोगों से भिक्षा लेने पहुंचते तो लोग उन्हें चोर-डाकू समझकर उन्हें भगा देते। तमाम संघर्ष के बावजूद उनका विश्वास डगमगाया नहीं और शिकागो में सभागार में लोगों को संबोधित किया।

स्वामी विवेकानंद का यह भाषण ऐतिहासिक साबित हुआ था, जिसने उन्हें विश्व ख्याति प्रदान की।

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शिकागो में 11 सितंबर 1893 का वह ऐतिहासिक दृश्य जहाँ दुनिया के कई देशों के विद्‌वानों ने अपनी अपनी बात समस्त दुनिया के सामने रखी थीं।

स्वामी विवेकानंद एक ऐसी शख्सियत हैं, जिन्हें भारतीय अध्यात्म और संस्कृति को दुनियाभर में अभूतपूर्व पहचान दिलाने का श्रेय जाता है। विश्व मंच पर जिस तरह से उन्होंने दुनिया के समक्ष भारत को रखा, वह अतुलनीय है। उनका व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा है कि कोई उनसे प्रभावित हुए बिना रह नहीं सकता।


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